परमार्थ में ही मानव जीवन की सार्थकता है। The meaning of human life lies in doing good | Essay for BPSC mains

परमार्थ में ही मानव जीवन की सार्थकता है।

वृच्छा कबहुँ न फल भखै;

नदी न सधैं नीर |

परमारथ के कारने, साधुन धरै सरीर ॥

उपर्युक्त पंक्तियाँ सच्चे मानव (साधु) के जीवन के उद्देश्य को दर्शाती है। जिस तरह वृक्ष अपने फल कभी नहीं चखते, नदी अपना पानी स्वयं नही पी सकती उसी तरह मानव जीवन भी स्वार्थ पूर्ति के रूप न होकर परमार्थ हेतु होता है अर्थात् परमार्थ में ही मानव जीवन की सार्थकता है।

इस निबंध में हम इन्ही परिप्रेक्ष्यों पर विचार करेंगे कि मनुष्य के जीवन की सार्थकता किसमें है। परमार्थ का क्या महत्व होता है? परमार्थ से व्यक्ति व समाज को क्या लाभ होता है इत्यादि ।

मनुष्य जाति, दुनिया की सभी अन्य प्रजातियों में श्रेष्ठ है। इसकी श्रेष्ठता का कारण यह है कि इसमें नैतिकता का पक्ष समावेशित है। इसी नैतिकता से प्रेरित होकर ही मनुष्य स्वार्थ से ऊपर उठकर परमार्थ हेतु कार्य करता है अतः उसके जीवन का उद्देश्य सभी का कल्याण करने व परमार्थ हेतु तत्पर रहने का है क्योंकि अपना पेट तो पशु भी भरते है परमार्थ की भावना सिर्फ मनुष्य में ही होती है। मैथलीशरण गुप्त जी के शब्दों मे

यहीं पशु-प्रवृति है कि आप आप

वहीं मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे ||

इस तरह मानव जीवन का उद्देश्य परमार्थ ही है।

अब हम परमार्थ के महत्व को समझेंगे । यदि सभी मनुष्य अपने स्वार्थ को त्यागते हुए परमार्थ हेतु कार्य करते है तो समाज में बंधुत्व व परस्पर सहयोग बढ़ता है तथा एक ऐसे वातावरण का निर्माण होता है जहाँ सभी एक-दूसरे के लिए कार्य कर रहे होते हैं। अतः व्यक्ति समान अथवा परमार्थ के लिए कार्य करके भी स्वयं के कार्य भी सिद्ध कर लेता है और उसके लिए कोई भी कार्य दुर्लभ नहीं रह पाता। तभी तो कहा गया है-

” परहित बस जिन्हें के मन माहीं ।

तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥

परमार्थ का एक लाभ यह भी है कि व्यक्ति स्वार्थ या इच्छा का त्याग कर देता है जिससे कि वह अनावश्यक तनाव से भी बचता है।

विभिन्न महापुरूषों की जीवनी पर भी गौर करें तो सभी का उद्देश्य परमार्थ ही नजर आता है और इसी परमार्थ के चलते उनका जीवन सार्थक हुआ। महात्मा गांधी हो या नेल्सन मंडेला, राजा राम मोहन हो राय या दयानंद सरस्वती, भगत सिंह हो या सुभाष चंद्र बोस, मदर टेरेसा हो या इंदिरा गांधी, ईश्वर चंद्र विद्यासागर हो या अब्दुल कलाम इन सभी महापुरुषों ने परमार्थ मे ही अपना जीवन व्यतीत किया। तभी आज इनके जीवन के अनुकरण की सीख दी जाती है। क्योंकि इन्होंने स्वार्थ पर जीने की परम्परा के स्थान पर परमार्थ में अपने जीवन को सार्थक माना। तभी तो कहा गया है-

“कुछ लोग है जो वक्त के साँचों में ढाल गए । कुछ लोग है जो वक्त के साँचों को बदल गए ॥”

हमने यह तो जान लिया कि परमार्थ में मानव जीवन की सार्थकता है परंतु यह भी जानना आवश्यक है कि परमार्थ के लिए स्वयं को प्रेरित करें कैसे? जब मैक्याविली जैसे दार्शनिक यह कहते है कि मनुष्य स्वभाव से ही ईर्ष्यालु व स्वार्थी होता है। ऐसे में परमार्थ के लिए कैसे प्रेरित किया जाय।

इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपनी आवश्यकता व इच्छा में अंतर समझे। ऐसा करने पर वह अपनी आवश्यकता पूर्ति के साथ ही समाज कल्याण के लिए कार्य करेगा। साथ ही बचपन से ही दया, करुणा, परोपकार के मूल्यों का विकास किया जाना चाहिए।

इस तरह यदि सभी में परमार्थ की भावना निहीत होगी तो सभी का कल्याण सुनिश्चित हो सकेगा । तथा मनुष्य अपने धर्म व कर्त्तव्यों की पूर्ति भी उचित रूप से कर सकेगा। तुलसीदास जी परमार्थ के महत्व को बताने हुए कहा है-

” परहित सरिम घरम नहिं भाई । परपीड़ा सम नहिं अधमाई ॥’

इस तरह हम कह सकते हैं कि मानव जीवन की सार्थकता इसी में हैं कि वह परमार्थ हेतु अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दें। यही वह तत्व है जो मानव जीवन को उसके महानतम स्तर पर पहुंचाती है तथा सभी प्राणियों का कल्याण सुनिश्चित करती है। विवेकानंद जी के अनुसार- “जितना हम दूसरों की भलाई करते हैं उतना ही हमारा हृदय शुद्ध होता है और उसमें ईश्वर निवास करता है।”

 

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