यदि हमें भविष्य के विनाश से बचना है तो विकास की दिशा को बदलना होगा
जब आखिरी नदी का पानी भी जहरीला हो जाएगा, जब आखिरी पेड़ भी काट दिया जाएगा, जब आखिरी मछली भी खत्म हो जाएगी तब इन्सान को एहसास होगा कि वह पैसे नही खा सकता ।
वर्तमान विकास के असंधारणीय तरीके को देखकर लगता है कि यह कल्पना जल्द ही हकीकत में बदल जाएगी। क्या वर्तमान विकास का सच में ऐसा डरा देने वाला अंजाम हो सकता है? इसके लिए एक उदाहरण पर विचार करते हैं। कुछ साल पहले उत्तराखण्ड में विकास के नाम पर इमारतों, सड़कों, व कई परियोजनाओं का निर्माण शुरू किया गया। विकास का कार्य इस प्रकार था मानों मानव अपने इस रचनात्मकता पर गर्व कर सके। लेकिन कुछ समय बाद ही प्रकृति अपना विकराल रूप दिखाती है और स्वर्ग सा वह दृश्य एक जर्जर नरक मे बदल जाता है। विकास का यह परिणाम आज उत्तराखण्ड में ही नहीं विश्व के हर देश में देखा जा सकता है। तो मन मे एक सवाल उठता है कि क्या विकास को रोक दे ? जिस हाल में हैं उसे नियति मान स्वीकार कर ले? या फिर विकास को इसी अंधाधूध गति से जारी रखे चाहे परिणाम कुछ भी हो? या फिर विकास के नए मार्ग का विचार करें ?
इन सभी सवालों के जवाब के लिए हमें एक समग्र विश्लेषण की आवश्यकता है। सर्वप्रथम हमें ये देखना होगा कि वर्तमान विकास का ऐसा क्या प्रभाव हुआ है । जो इसके तरीके को बदलने की आवश्कता हो रही है। कुछ प्रभाव तो उपर्युक्त उदाहरणों से परिलक्षित हो रहे हैं विकास की वर्तमान रूप ने हर क्षेत्र में विषमता पैदा करदी है। विश्व का विभाजन भी विकासशील व विकसित देश के रूप में हो चुका है। देश भी शहर ग्रामीण, अमीर-गरीब आदि के रूप में विभाजित हो रहे है।
असमानता के अतिरिक्त वर्तमान में संसाधन दोहन भी रूप से जारी है। विकास के इसी रूप ने जलवायु परिवर्तन को एक विकट समस्या के रूप मे पैदा किया है।
समुद्र स्तर का बढ़ना हो या नदियों का सूखना, हिमानियों का पिघलना हो या वनस्पतियों का विलुप्त होना, जीवों के अस्तित्व को संकट हो या विभिन्न आपदाओं की बारंबारता ये सब वर्तमान विकास के ही प्रभाव है। आखिर विकास के इस प्रभाव को देखकर मन मैं सवाल उठता है ऐसा विकास अपनाने का कारण क्या है?
जंगल, पेड़, पहाड़, समंदर
इंसा सब कुछ काट रहा है।
छील – छील कर खाल भूमि की
कतरा-कतरा बाँट रहा है।
आवश्यकता आविष्कार की जननी रही है। मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप आविष्कार कर विकास किया। प्रारम्भ मे यह विकास प्रकृति के उत्पादन दर से संतुलित रहा। मगर औद्योगिक क्रांति के बाद तो मानों विकास ने जैसे हवाई गति ही पकड़ ली हो। इंसान की बढ़ती इच्छाओं, भौतिकवाद, एकत्रित करने की प्रवृति ने वर्तमान विकास की माँग को बनाए रखा। देशों मे आर्थिक विकास की होड़, शस्त्रों की होड़ आदि तो मानो आग में घी डालने का काम कर रही।
तकनीक पर अत्यधिक निर्भरता, बढती जनसंख्या, सीमित संसाध न आपसी तनाव से निपटने के लिए सुरक्षा की आवश्यकता, भूमि कमी, आदि से वर्तमान विकास की आवश्यकता का का कारण है लेकिन उपर्युक्त विश्लेषण से इतना तो स्पष्ट हो चुका है यह तरीका से ज्यादा समय तक प्रभावी नही हो सकता। तो फिर मे मन एक सवाल आता है कि विकास कैसा हो ? उसका क्या तरीका हो कि वर्तमान समस्याओं का निपटान किया जा सकता है सके ?
“गांधी जी के अनुसार पृथ्वी हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकती है इच्छाओ का नहीं।”
अतः सर्वप्रथम तो हमे अपनी असीमित ईच्छाओं को कम करने की आवश्यकता है। हमें सिर्फ अपने लिए ही नहीं, वरन् हमारी आगामी पीढ़ी के लिए विकास का संधारणीय रूप सुनिश्चित करना होगा।
इसके लिए राष्ट्रों को आधुनिकीकरण की होड़ में शामिल होने की जगह अपने राष्ट्र के समावेशी व सतत विकास पर ध्यान देना होगा। राजनैतिक
तिक इच्छाशक्तियों में कमी लाकर विश्व में एक सहयोग के दृष्टिकोण की आवश्यकता है। साथ ही जरूरी है कि विकसित देश सतत विकास प्राप्ति में अल्प विकसित देश, विकासशील देशों की करें।
आर्थिक विकास की पूर्ति के लिए स्वच्छ तकनीकों का प्रयोग हो यथा नवीकरणीय ऊर्जा (सौर, पवन, ज्वारीय), इलैक्ट्रिक व्हीकल, संसाधन का उचित दोहन व वितरण, सभी वर्गों ( अमीर-गरीब, पुरुष स्त्री, शहरी-ग्रामीण) की संसाधन तक समान पंहुच, कम्पनियों पर CSR दायित्व, अपशिष्ट निपटान इत्यादि । आर्थिक विकास का मॉडल चक्रीय अर्थव्यवस्था का हो (यूज – रियूज, रिपेयर – रिसाइकल) तथा टेक मैक थ्रो अवे की संस्कृति पर रोक लगाने की आवश्यकता है। वर्तमान मे समाज की भागीदारी भी महत्व भूमिका निभा सकती है। हमे बौद्ध के बहुजन हिताय”, महावीर के सभी जीवों के प्रति कल्याण’, नानक के’ सरबत दा भला’, मोहम्मद के’ बंधुजन प्रेम’
गांधी के सर्वोदय दृष्टिकोण को अपनाने की आवश्यकता है। समाज मे परिवार, शिक्षक आदि द्वारा बचपन से ही बच्चों में पर्यावरण के प्रति आदर, सभी जीवों के लिए प्रेम को मूल्य को विकसित करना चाहिए।
वर्तमान मे पर्यावरण संरक्षण व विकास मे प्रतिस्पर्धा की जगह संतुलन का दृष्टिकोण रखना आवश्यक है। ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन मे कमी, प्लास्टिक को प्रयोग कम, अपशिष्ट के उचित निपटान, जल का सतत उपयोग, भूजल का उचित प्रबन्धन, कृषि का संधारणीय तरीका अपनाकर पर्यावरण सरंक्षण व विकास, गाड़ी के दो पहियों की भूमिका निभा सकते हैं।
सभी जीवों के साथ सहअस्तित्व, मानव पशु संघर्ष में कमी, जैव विविधता को बनाए रखकर विकास किए जाने की आवश्यकता है। इसके लिए आवश्यक है कि विश्व में जलवायु परिवर्तन, मरुस्थलीकरण, वैटलैंड, जल सरंक्षण, समुद्र सरंक्षण आि स्पष्ट रणनीति हो ।
इसके लिए जनजातियों की पद्धति यथा विश्नोई सम्प्रदाय की हिरण की सुरक्षा आंध्रप्रदेश की चेंचू जनजाति, अरुणाचल प्रदेश की मिश्मी आदि का अनुसरण किया जाना चाहिए जिसमें पर्यावरण के प्रति सम्मान की भावना हो ।
तुम्हारे दिल की चुभन भी कम होगी,
किसी के पाँव का काँटा निकालकर तो देखे ॥
भारत में हमेशा धरती को माता की संज्ञा दी गई है। विभिन्न नदियों को देवी की संज्ञा, पेड़ पौधो की पूजा, जीवों से सम्बन्ध भारतीय संस्कृति की विशेषता रही है। भारत द्वारा भी विकास के तरीके को बदलने के लिए कई उपाय अपनाए जा रहे है। यह पेरिस के INDC के लक्ष्य हो या नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने का दृष्टिकोण, ISA का निर्माण हो या द्वीपीय देशों का संरक्षण, समावेशी विकास के लिए योजनाएँ ( मनरेगा, स्किल इंडिया, PMJDY, स्टैण्ड अप, मुद्रा) हो या जीवों का संरक्षण (राष्ट्रीय उद्यान, वन्यजीव अभ्यारण्य, NGT), प्रदूषण पर कार्यवाही हो या कार्बन सिंक निर्माण आदि के माध्यम से अपने विकास के तरीके को बदल रहा है।
2008 में NAPCC कार्य योजना निर्माण, विभिन्न विधिक प्रावधान (पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, वनाधिकार अधिनियम, जैव विविधता संरक्षण अधिनियम, समावेशी विकास की योजनाएँ, आपदा प्रबंधन तंत्र, क्षेत्रीय असमानता कमी, सतत विकास लक्ष्य (SDG) को प्राप्ति के लिए किए गए सराहनीय कदम है।
लेकिन भारत व विश्व के ये कदम अभी भी पर्याप्त नही है । IPCC की 1.5 रिपोर्ट के अनुसार से वर्तमान गति पर विकास औद्योगिक क्रांति से तापमान को 21 वीं सदी के अंत तक 2°C तक बढ़ा देंगे। जिससे विकट परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती है। कई देश | यथा मालदीव, फिजी तो डूब भी जाएंगे।
अतः उपर्युक्त उपायों के अतिरिक्त सभी देशों के उत्तरदायित्व का निर्धारण व UN द्वारा एक स्पष्ट व समग्र रणनीति तंत्र बनाने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त जागरुकता, वनारोपण, जल सरंक्षण, संधारणीय उपाय आदि को बढ़ावा देने की आवश्यकता है तथा ऐसी तकनीक विकसित करने के लिए अनुसंधान व विकास को बढ़ावा देना चाहिए। समाज को नसंख्या नियंत्रण के प्रति एक स्पष्ट रवैया अपनाना
अर्थात सभी जीवों के प्रति करुणा के भाव की आवश्यकता है। हालांकि विश्व में विकास को के तरीके को बदलने के प्रयास शुरू किए जा चुके है। सर्वप्रथम प्रयास बर्टलैण्ड कमीशन द्वारा सतत विकास की अवधारणा रखकर शुरू किया गया। इसके पश्चात रियो सम्मेलन मे UNFCC, UNCBD, UNCCD के क्रियान्वयन की नींव रखी गई। इसके अतिरिक्त मॉन्ट्रियल व किगाली प्रोटोकॉल, बेसल, रॉटरडम, स्टॉकहोम कन्वेंशन, मीनामाता कन्वेंशन, होनोलूलू रणनीति की शुरू की गई। रामसर कन्वेंशन, पीटलैंड इनिशिएटिव, ग्रेट, अत: विकास ऐसा हो कि वो मानव सभ्यता को आगे ले जाए न कि विनाश की ओर। स्पष्ट है कि अगर हमे अपने भविष्य को बचाना पैसेफिक गार्बेज के लिए ओसियन क्लीन अप UNEP का # Clean है तो विकास की दिशा को बदलना होगा और ये विकास ऐसा हो कि Sea अभियान इसी दिशा में सराहनीय कदम है। पेरिस सम्मेलन मे हम कह सके- राष्ट्र लक्ष्य निर्धारण (NDC) आदि विभिन्न राष्ट्रों की प्रतिबद्धता को व्यक्त करता है। कार्टजेना व नगोया प्रोटोकॉल जैव विविधता के लिए उठाए गए कदमों मे से एक है।
सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः ॥
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चिद दुःख भाग्भवेत ॥